पूरा नाम – स्वर्गीय श्री कोमलचंद जैन
जन्म तिथि – 8 मार्च 1931
जन्म स्थान – सागर (मूल निवासी ग्राम गंभीरिया, जो अब सागर का हिस्सा है)
पिता का नाम – श्री प्रेमचंद जैन
माता का नाम – श्रीमती गुलाबरानी जैन
परिवार – पिता सात बहनों के बाद मात्र एक छोटे भाई सहित
पितामह – श्री मूलचंद जैन

जीवन परिचय


पलोटनगंज( मोराजी ) में मेरा अध्ययन आरंभ हुआ-उसी स्कूल में मेरे पिताजी ने भी अध्ययन किया था। लम्बा चौड़ा मैदान-चंपा के वृक्ष जिन पर मैं चढ़ता था। अब मिडिल स्कूल में परिवर्तित।पिता जी के देहांत के बाद मैंने नए वर्ष की प्रातः बेला पर उनकी स्मृति में भेंट कार्यक्रम रखा था जिसमें वहां के समस्त शिक्षकों, सेवानिवृत्त शिक्षकों का श्रीफल और पुस्तकों के द्वारा सम्मान किया।लगभग पांच सौ छात्रों को भी पिताजी की स्मृति में पुस्तकें बांटी गई।पुस्तकें बांटने वालों में वे ही लोग सम्मलित थे जो मेरे अध्ययन काल में साथ थे। स्कूल कमेटी के मेंबर होने के नाते स्थानीय विधायक भी शामिल हुए।पिताजी की स्मृति में जैन स्कूल, महिलाश्रम,रजाखेड़ी बाल विद्यालय, झूलेलाल स्कूल और उनके शिक्षकों और छात्रों को भी पुस्तकें वितरित कीं।हिंदी विषय में दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 1-2-3 आने वाले छात्रों को मेडल,नगद राशि और पुस्तकें दीं।आज भी दी जा रही हैं।
प्रायमरी अध्ययन काल में बड़े बाजार में जहां निवास था-वहां अमरूद के पेड़ों का हल्का बगीचा था-जहां से मैं प्रकृति की ओर झुका।कुछ दिन बाद परिवार चकराघाट पर आ गया।घर के बाजू में अमरूद का वृक्ष था-मेँ छप्पर पर चढ़कर उन्हें तोड़ा करता था।चकराघाट निवास से मैं तालाब का कीड़ा बन गया-किसी तरह का कोई भय नहीं। उस समय सभी कार्य तालाब से होते थे-नहाना धोना,अनाज साफ करना-काई लग जाने से लोग फिसल जाते थे-कई महिलाओं को मैंने तैरकर डूबने से बचाया है।तैरने के साथ नोंका विहार में मेरी बड़ी रुचि रही है और लगभग हर दिन सन्ध्या,अंधेरी उजली रातों में नोंका विहार सारे तालाब में लम्बे अरसे तक करने के बाद हाथ में पतवारों से भट्टें पड़ गई थीं जो लम्बे अरसे तक बनी रहीं।तालाब में बनने वाले विभिन्न प्राकृतिक दृश्य मुझे अपनी ओर खींचते थे जिससे मैं प्रकृति प्रेमी बन गया।
प्रायमरी अध्ययन के बाद मेरा नाम पण्डित मोतीलाल नेहरू स्कूल में लिखवा दिया गया।पढ़ने में ज्यादा होशियार न रहा क्योंकि खेल कूंद, दौड़,अखाड़ा शरारतों में ज्यादा समय लेता था,ऐसा साथ अध्ययन रत साथियों के रहने से हुआ।ड्राइंग विषय में रुचि होने से विषय चुनाव में ड्राइंग विषय रखा था।हम पांच साथी थे जिनमें से अब दो शेष जीवन जी रहे हैं। मैं अपनी छत पर बैठकर प्रकृति के खूब रंगीन चित्र बनाता था।श्री बेलपुरकर सर मेरे शिक्षक थे।
गाने से आरंभ से रुचि थी।शादी विवाह में गाये जाने वाले गीत मुझे खूब अच्छे लगते थे। मैं हारमोनियम और वायलिन सीखने रिंगे सर के यहां जाने लगा-मेरे एक साथी थे जिन्होंने संगीत शिक्षक के रूप में काम किया ।वे अब नहीं हैं उनका लड़का संगीत शिक्षक है।
हारमोनियम और वायलिन दोनों मेरे पास रहे और मैं उस समय चलने वाली फिल्मों के गीत निकालता था। उस समय सागर में चंद ही घरों में रेडियो थे। पिताजी मेरे शौक के कारण बंबई से आठ बैंड का मरफी रेडियो लाये थे जो सागर में प्रथम बार आया था।उस समय अंग्रेजी कार्यक्रमों के बाद रेडियो सीलोन ने प्रातः 11 से 12 तक हिंदी कार्यक्रम आरंभ किया था-फिर बाद में उसे 5 से 7 तक भी रखा गया-रेडियो गोवा में प्रचलित था।रेडियो के आने से मैं संगीत में और भी गहरी रुचि लेने लगा।अपने पसन्द के गानों की फरमाइश भी भेजता था। वह रेडियो आज मेरे पास है-और उसी रूप में है-15 दिन के आसपास उसे खोलकर साफ करता था और कभी उसकी माल टूट जाये तो तो स्वयं ही उसे सुधार भी लेता था।आज भी मैं रेडियो से जुड़ा हूँ।
प्रातः जल्दी उठना,दौड़ लगाना,तैरना,पेड़ों पर चढ़ना,चकराघाट पर साथियों के साथ खेलना ऐसे अंग थे कि शरीर में अपने किस्म का आकर्षण रहा-बीड़ी,सिगरेट शराब,जुआ आदि से आज तक दूर ही रहा हूँ-यहां तक कि घर में चाय भी नहीं बनती थी।घर का गाय का शुद्ध घी,पपड़ी,मगद के लड्डू का नाश्ता था।मित्रगण सभी प्रकार के रहे पर मैं उनसे प्रभावित ना रहा। इस कारण मेरा नाम कोमल नहीं कमल भी रखा गया जिसे चंद ही लोग जानते हैं। मेरे मित्र ने मेरे इस नाम से अपनी दुकान भी खोल रखी थी’ कमल पेपर मार्ट’ जो मेरे घर के पास ही थी।हम दोनों एक से एक कपड़े पहिनकर निकलते थे।एक ही टेलर से कपड़े सिलवाते थे-और जीवन के अंतिम समय तक उसी टेलर ने मेरे और मेरे अन्य मित्रों के कपड़े तैयार किये थे।अब वह नहीं हैं।
मेरा नाम कमल क्यों रखा गया इसका कारण यह है कि सभी प्रकार से विषय युक्त मित्रों के साथ रहकर भी मैं सबसे दूर रहा-जैसे कमल की जड़ें कीचड़ में होती हैं और उसे वे गन्दा नहीं पातीं-धड़ पानी में होता है पर कमल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और सिर हवा में होता है जहां से वह झूलता है। सोचता हूँ पिताजी सिगरेट पीते थे, मां, बहिन,भाई सभी तम्बाखू खाते रहे।मैं सबसे बचा,ना कभी जुआ खेला,ना सट्टा लगाया वही simple living-high thinking.
हाँ स्कूल में मैं पदमनाथ तैलंग की कक्षा में पढ़ता था छटवीं-भारत छोड़ो आंदोलन हुआ,अन्य साथियों के साथ झंडा चढ़ाने गया-गर्वमेंट स्कूल में चढ़ाया-फिर कचहरी जहां लाठी चार्ज हुआ जमकर-मैं गिर गया जमीन पर,चोटें आईं।कौन उठाकर घर लाया पता नहीं–पिताजी मेरा नाम लिखवाने के पक्ष में रहे पर मेरे बब्बा जी को यह पसन्द ना था।
मेरे पिताजी खादी पहनते थे,उन्होंने गुपचुप कब अंग्रेजों की टक्कर में भाग लिया-ये एक सज्जन ने मुझे बाद में बतलाया था। एक शौक और रहा फोटोग्राफी का-सरवैया स्टूडियो से जुड़ा-मेरे मिलेट्री के फोटोग्राफर रहे-मेरे पास भी बॉक्स कैमरा आया और खूब फोटो खींचता रहा।सरवैया जी ने भी मेरे खूब अच्छे फोटोग्राभ लिए और उनके अंतिम समय तक मैं उनसे जुड़ा रहा।
कक्षा नवमीं से मैने डायरी लिखना आरंभ की जो कई वर्षों तक चलती रही-जिसमें मेरी भावनाओं कल्पनाओं और आशाओं की ऊंची उड़ाने थी।अपनी कलम को कभी भी सामने नहीं लाया–पिताजी घर पर सरिता,धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाएँ पढ़ने लाते थे जिससे वे जीवन से जुड़ गई।आज भी मुझे april 1952 की सरिता वा सागर विश्वविद्यालय की एक पुरानी मैगजीन को पढ़ने की इच्छा है। सिनेमा का शौकीन रहा पर उसके गाने की लगन के साथ जिसने मुझे अत्यंत ही अधिक भावुक बना दिया।जीवन की घनघोर कठिनाइयों में गीतों ने साथ दिया और आज जीवन संध्या की बेला पर भी वे मुझे मानसिक रूप से स्वस्थ्य रहने में काफी सहायक बने हैं। बम्बई से अंग्रेजी में एक पत्रिका निकलती थी-Film India बाबूराव पटेल उसके संपादक थे—खूब मोटे ग्लेज कागज में बहुत अच्छी फोटोग्राफी।आज पुनः उन प्रतियों की चाह है -उस समय वह एक रुपये में आती थी जो बहुत कीमती थी। अन्य पत्रिकाएं भी मैं खरीदने लगा था जैसे ‘मनोरमा’ उसका पुराना रूप ना नारी प्रधान था ना कहानी प्रधान-विचारों में गहराई उड़ेलने वाली पत्रिका थी,मित्र प्रकाशन की।यह पत्रिका जो अब नारी प्रधान बन गई है।कहानियों में रुचि बहुत कम थी–जासूसी या हल्के उपन्यास कभी पढ़े नहीं।
भगवतीचरण वर्मा का चित्रलेखा उपन्यास नवमीं क्लास में पढ़कर पाप और पुण्य की परिभाषा से प्रभावित हो चुका था।उसे कई बार पढा और उससे बनी फिल्म भी देखी। जीवन का प्रथम काल खूब आनन्द-मस्ती में बीता-लम्बी चौड़ी मित्र मंडली के साथ जीवन कब कैसा बदलाव ले-पता नहीं-किस्मत की लकीरें,भाग्य,पूर्व कर्मों के पाप पुण्य यह तय करना बहुत कठिन है। लोग अपने अपने ढंग से उसे समझाते हैं और कभी कभी स्वार्थ के दायरों में पड़कर उसकी विवेचना करते हैं।
एक दिन घर आने पर मालूम पड़ा कि मेरे बब्बा मेरे लिए हथोना कर आये हैं-संभवतः फरवरी 1952 एक बन्धन में बंध चुका मैं-यहां से जीवन का दूसरा पड़ाव चालू हुआ अब।एक भावात्मक पहलू लेकर पूरे एक वर्ष बाद शादी हुई 17-2-53 को, शादी के कार्ड बम्बई में छपे ,आठ पेज -सागर के तालाब के विभिन्न दृश्यों के परिवेश में–वहीं एक भावात्मक चित्र भी तैयार हुआ कार्ड के लिए जिसमें ह। दोनों की फोटो भी थीं–शादी का लिफाफा भी बम्बई से आया-कार्ड को सेन्टेड किया गया था-खोलने पर सेंट की खुशबू चारों ओर महक जावेगी। विभिन्न प्रकार की सुपारियाँ बम्बई से बुलाई थीं। शादी में मिलेट्री बेंड भी था-शहनाई भी-सब कुछ नया।लाऊड स्पीकर से गाने की प्रथा हो गई थी पर शादी के कार्ड का चलन लगभग नहीं के बराबर था। स्पीकर से शादी के बीच केवल अंग्रेजी ध्वनियाँ ही बजाई गई-गीत नहीं। आज भी उस कार्ड और शादी की चर्चा लोग करते हैं। कार्ड का प्रथम पृष्ठ चकराघाट के उस मंदिर का था जहां मैं अपने कपड़े रखकर तैरने जाता था।शादी के कार्यक्रम के अलावा-एक गीत और शब्द चित्र अन्य दृश्यों के साथ जोड़े गए थे।
23 अप्रेल 1953 को जब मैं तालाब से नहाकर आया तो शरीर में तीव्र वेदना हुई।इससे पूर्व कभी भी मुझे कुछ नहीं हुआ था।पिताजी मुझे पड़ोस के डॉ के यहां ले गए–जहां टेबिल पर पड़ा पड़ा मैं कल्पना कर रहा था कि इस टेबिल पर ही मेरी मृत्यु हो जावेगी उसके बाद “धर्मयुग” पत्रिका बंटेगी जिसमें मेरी शादी का फोटो आना था। सागर के लिए यह पहला अवसर था। कलकत्ता से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘रानी’में भी शादी का चित्र दिया गया था। अब बिस्तर की शरण में तरह तरह के डॉ, ज्योतिषी, झाड़ फूंक करने के बाद ठीक होने का नाम ही नहीं था।
बिस्तर पर पड़े पड़े सारा समय रेडियो में गुजरता,वह रेडियो अब और अच्छा साथी बन गया जिसे जीवन के अंत तक साथ रखने की मेरी चाह रही है । आज भी वह ठीक है । एक परिचित साथ खेले मेकेनिक ने चर्चा के दौरान में मुझे बताया कि खराब होने पर अब उसे सुधारा न जा सकेगा,क्योंकि वे पार्ट अब उपलब्ध नहीं होंगे । उनकी सलाह पर स्थानीय एक सज्जन का मैंने वही रेडियो लिया  जो मेरे रेडियो के बाद सागर में आया था ,वह उनके कबाड़ में डला था । दोनों रेडियो ठीक हैंऔर चालू हैं।
डाक्टरी इलाज से लम्बे अरसे तक कोई निष्कर्ष नहीं निकला और हालत दिन प्रतिदिन गिरती ही गई-तब प्राकृतिक चिकित्सा आरंभ हुई—टब स्नान,मिट्टी की पट्टी पेट पर , फल सब्जी के जूस, नीबू शहद का कल्प–एक लंबा अरसा लगा।3-4माह तक अन्न की जगह साग सब्जी आदि। इस बीच मैंने इंटर परीक्षा का अजमेर बोर्ड से फार्म भरा और भोपाल केंद्र से परीक्षा दी ।
इस बीच शादी का लंबा खर्च, मेरी बीमारी का  खर्च, दुकान में लगातार घाटा। उस समय पेपर का थोक कारोबार था।बीड़ी कारखाने को एवं प्रेस आदि को सागर में और बाहर भी दिया जाता था । 34 रुपये रीम का कागज उतरते उतरते 14 पर आ गया। बहुत से बीड़ी कारखाने इस बीच टूट जाने से पैसा डूब गया और शायद उसका उत्तरदायी परोक्ष रूप से मैं बन गया । अब न हेल्थ थी,न वेल्थ लोगोँ की उंगलियां उठना स्वाभाविक है-आसमान में उड़ने वाला जमीन पर जो गिर गया। इस कारण भोपाल से परीक्षा देकर मैं बम्बई चला गया  और वहां एक प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा । मुझ जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए वहां का माहौल अच्छा ना था। भागदौड़ भरा जीवन,ना मुस्कराता  हुआ चाँद और ना चमकते तारे, चारों ओर बिजली-ट्राम बसों का कोलाहल यद्धपि  समुद्र की लहरों में मुझे अच्छा लगता ।सुबह घूमने जाता और समुद्र में तैरता ,उसकी लहर जब किनारे पर फेंकती तो खूब आनन्द आता ,मगर फिर घर आकर अच्छे पानी से नहाना होता था ।
पिताजी व्यापार के सिलसिले में बम्बई आये और वापस घर चलने के लिए फोर्स करने लगे ।यद्धपि मेरा इरादा  y m c a  कालेज अपने साथी के साथ जाना तय था  पर तूफानी हवाओं ने मुझे न जाने को मजबूर कर दिया  मेरे वे साथी मद्रास से ट्रेनिंग  लेकर अमेरिका भी गए  और महारानी लक्ष्मीबाई फिजिकल कालेज के vice pricipal  होकर रिटायर हुए ,अब वे मुझसे हमेशा के लिए विदा हो गए  ।सागर आया,सागर में नॉकरी की कमीं नहीं थी। उस समय बिना इंटरव्यू आदि के बैंक में भी सरलता से नॉकरी मिल जाती थी। सातवीं पास प्रायमरी स्कूल के मास्टर हो जाते थे।किसी भी स्कूल में सागर में नॉकरी मिल सकती थी ,पर मैं जीवन के इस मोड़ पर सागर नही रहना चाहता था । इस कारण महराजपुर ( देवरी ) में स्कूल में इंग्लिश टीचर के रूप में 83 रुपये माह पर नियुक्त हुआ। अंग्रेजी के अलावा मुझे ड्राईनग विषय भी पढ़ाना पढ़ते थे जो उस समय मिडिल स्कूल में अनिवार्य थे ।
पत्र पत्रिकाओं की आदत थी सागर आने पर लाता था और दैनिक अंग्रेजी पेपर डाक से आ जाता था । खबरें लेट मिलती थी पर आदत जो थी इस कारण फ्री प्रेस जनरल इसकी पूर्ति करता था ,काफी सस्ता जो था ।
इस बीच बी.ए. का प्राइवेट भरा,यह अनुमति केवल शिक्षकों को थी ।बी.ए. के उत्तीर्ण होने के कारण मैं indian english middle school का हेडमास्टर बन गया। posting राहतगढ़ में हुई।एक साल वहां रहा फिर कर्रापुर मिडिल स्कूल में सागर के पास ही आ गया ।
यहां बच्चो की सहायता से मैने सुंदर से बगीचा बनवाया।ग्रामवासियों के सहयोग से स्वतंत्रता दिवस पर मैने उन्हें उनकी पसंद की पत्रिका देने का सुझाव दिया।इस कारण बहुत सी पत्रिकाएं स्कूल में आने लगीं। जिनका उपयोग वहां के नागरिक संध्या समय बगीचे में बैठकर करते थे।पत्रिकाओं की  फाइलें भी मैंने तैयार की और उन्हें बच्चे घर पढ़ने ले जा सकते थे। जनसहयोग  से एक बैटरी रेडियो का प्रबंध स्कूल में किया जिसका लाभ सभी उठाते थे।
मैं वहीं नदी में नहाने जाता था और बच्चों को तैरना सिखाया,सुबह उठकर दौड़ने जाता था, कुछ खेलकूद में रुचि रखने  वाले बच्चों को साथ ले जाता था। एक ना भूलने वाली घटना,ठंड का समय था,संपूर्ण गर्म कपड़े पहिनकर मैं स्कूल के बगीचे में घूम रहा था,लगभग छुटटी होने का समय था। स्कूल के पास ही एक कुंआ था,दो लड़कियां पानी भरने गई,मुंडेर के अभाव में असावधानी से लड़की कुँए में गिर गई और दूसरी जोर से चिल्लाई।मैंने दौड़कर गर्म कपड़े,जूते पहिने कुँए में कूद गया।लड़की को निकाला तब तक लोग इकट्ठे हो गए थे और उसे रस्से के सहारे निकाला, पूरे गांव में यह खबर फैल गई,मुझे खुशी हुई कि समय पर कूदने  के कारण  मैं उसे बचा सका।
कर्रापुर के कार्यकाल में मैने  हिंदी M.A. किया प्राइवेट रूप से,फिर मन में एक साथी ने रिसर्च करने हेतु प्रेरणा दी और प.नंददुलारे वाजपेयी के under में “आधुनिक काव्य में रामकाव्य का अनुशीलन” विषय पर सागर विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रेशन हो गया पर कार्य और परिवार की उलझनों में वह पूरा न हो सका पर हमारे वे साथी रिसर्च करने के बाद विश्वविद्यालय पहुंच गए और बाद में हेड ऑफ डिपार्टमेंट होकर रिटायर हुए, वे अब नहीं हैं।
इस बीच संभागीय शिक्षा अधिकारी जबलपुर से वहां निरीक्षण को आये और मेरे कार्यकलापों से प्रभावित होकर उन्होंने वहां खुलने वाली हाई स्कूल में नियुक्ति का आर्डर तुरन्त ही दे दिया। इससे पूर्व सन 1960-61 में मेरा चुनाव बी.एड. के लिए हुआ था उस समय सागर में कालेज नही था। मुझे अपनी पत्नी के साथ जबलपुर में रहना पड़ा।किराये का मकान  भूरामल की धर्मशाला के सामने था जहाँ सागर से आने वाले परिचित लोग ठहरते थे और मिलने आते थे।कालेज में खूब मेहनत करना पड़ती थी। केवल पचास रुपये महीने कालेज से मिलते थे जिसमें से 45 रुपये किराये के मैं दे देता था बाकी जेवर बेचकर काम चलता था । हाँ पत्नी ने प्राइवेट रूप से कक्षा आठवीं की परीक्षा दी थी।सागर में दीपावली के आसपास B.T.I. महिला खुलने की अनुमति शासन ने दी और वे उसमें अध्ययन करने के लिए सागर आ गई और मैं कालेज के हॉस्टल में पहुंच गया।कालेज के सभी कार्यक्रमों में भाग लेता था।